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कबीर का रहस्यवाद

कबीर का रहस्यवाद

            कबीर के रहस्यवाद को समझने से पहले रहस्यवाद को समझना आवश्यक है। वस्तुतः रहस्यवाद एक मनोदशा या भावनामात्र है। इस जगत में जो दृश्यमान है, उससे परे मनुष्य कभी अव्यक्त, अगोचर, अतर्क्य और अगम्य की कल्पना करता है, वह संसार के नियंता की कल्पना करता है और उस अदृश्य सत्ता के संबंध में जानना चाहता है। यह उस सत्ता के प्रति जिज्ञासा की स्थिति है। अज्ञात के प्रति यही जिज्ञासा की मनोदशा ही रहस्यवाद है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार,"साधना क्षेत्र में जो ब्रह्म है, साहित्य क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।" दूसरे शब्दों में, रहस्यवाद ब्रह्म से आत्मा के तादात्म्य का प्रकाशन है। ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए या उससे तादात्म्य स्थापित करने के लिए साधक को कई चरणों से गुजरना पड़ता है, जैसे- ब्रह्म के प्रति जिज्ञासा, जिज्ञासा शांत करने के लिए गुरु के पास जाना, चित्त का निर्मलीकरण, ब्रह्म का आभास, वियोगावस्था(विरह की स्थिति) और अंततः परमात्मा से एकाकार हो जाना अर्थात मिलन की अवस्था। अब हम कबीर के रहस्यवाद के संदर्भ में इनकी चर्चा करते हुए कबीर की पंक्तियों से कुछ उदाहरणों का भी अध्ययन करेंगे।
              भक्तिकाल के निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानाश्रयी शाखा के भक्त कबीर, मध्यकालीन संतों और भक्तों की परंपरा में एक शास्त्रीय तत्त्व-ज्ञान और वर्णाश्रम-व्यवस्था विरोधी, निष्पक्ष और निर्भय भक्त के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। कबीरदास हिंदी साहित्य में आदि रहस्यवादी कवि माने जाते हैं। कबीर के रहस्यवादी कवि-व्यक्तित्त्व की ओर सबसे पहले रवीन्द्रनाथ टैगोर का ध्यान आकृष्ट हुआ था। तत्पश्चात श्यामसुंदर दास, डॉ० रामकुमार वर्मा तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनके रहस्यवाद पर विचार किया। श्यामसुंदर दास ने 'कबीर ग्रंथावली' (१९२८ ई०) की भूमिका में तथा डॉ० रामकुमार वर्मा ने 'कबीर का रहस्यवाद' (१९३०ई०) में कबीर को एक सच्चा रहस्यवादी कवि बताया, परंतु आचार्य शुक्ल ने कबीर के रहस्यवाद को स्वीकार नहीं किया। बाद में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने "कबीर" नामक आलोचना ग्रंथ के एक पाठ 'रूप और अरूप, सीमा और असीम' में इस पर चर्चा की है।
              रहस्यवाद की प्रमुख रूप से दो कोटियाँ मानी गयीं हैं- (१) भावनात्मक रहस्यवाद, (२) साधनात्मक रहस्यवाद। कबीर के काव्य में इन दोनों रूपों का निदर्शन मिलता है। भावनात्मक रहस्यवाद की भी तीन अवस्थाएं मिलती हैं- प्रथमावस्था में कबीर के मन में ब्रह्म के प्रति जिज्ञासा तथा गुरुज्ञान के माध्यम से आकर्षण उत्पन्न होता है; द्वितीयावस्था में उस ब्रह्म से मिलने की आतुरता या उत्कण्ठा उत्पन्न होती है। इस अवस्था में विरह-मिलन, आशा-निराशा, अभिलाषा-वेदना की अत्यंत सजीव अभिव्यक्ति होती है। उनका विरह-वर्णन देखिए-
                 सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै।
                 दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।
                                          या
               कै विरहिणि कूँ मीच दे, कै आपा दिखलाइ।
               आठ पहर का दाँझणा, मोपै सह्या न जाइ।।
                                          या
                अंषडियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि निहारि।
                जीभड़ियाँ छाला पड़्या, राम पुकारि पुकारि।।

तीसरी अवस्था परमात्मा से मिलन(ऐक्य) की अवस्था है। एक उदाहरण देखिए-
               लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
               लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल।।
                                          या
                हेरत-हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराइ।
                बूँद समानीं समद में, सो कत हेरी जाइ।।
                                          या
              पाणी हीं तै हिम भया, हिम ह्वै गया बिलाइ।
              जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाइ।।

                 उपर्युक्त पंक्तियों में कबीर ने जीवात्मा-परमात्मा के एकाकार होने की स्थिति का वर्णन किया है। यह अद्वैत की स्थिति है(जीवो ब्रह्मैव न परः)।
                  डॉ० गोविंद त्रिगुणायत ने लिखा है,"कबीर के काव्य में प्रेममूलक भावना प्रधान रहस्यवाद का अनुभूतिमय प्रकाशन है। अनुभूति भावना से संबंधित है। भावना प्रेम की प्रधान प्रवृत्ति है।....... प्रेम की चरम परिणति दाम्पत्य प्रेम में देखी जाती है। अतः रहस्यवाद की अभिव्यक्ति सदा प्रियतम और विरहिणी के आश्रय से होती है।" यह प्रेममूलक रहस्यवाद भी भावनात्मक रहस्यवाद के अंतर्गत ही आ जाता है। इसके अंतर्गत कबीर स्वयं के सुहागिनी होने का भी स्वांग रचते हैं-
                           दुलहिनी गावहु मंगलचार।
                           हम घर आए राजा राम भरतार।
          तन रति करि मैं मन रति करिहौं, पंच तत्त बाराती।
          रामदेव  मोरे  पाहुने  आए, हौं  जोबन  मदमाती।।
                                          या
                   हरि मोरा पिउ मैं हरि की बहुरिया।
                   राम  बड़े  मैं  तनिक  लहुरिया।।
                                          या
         बहुत दिनन थैं मैं प्रीतम पाए।
         भाग बड़े घर बैठे आए।।
         मंगलचार मांहि मन राखौं। राम रसाइण रसना चाखौं।।
         मंदिर मांहि भया उजियारा। ले सूती अपना पीव पियारा।।
                         ×                  ×                  ×
               कुछ विद्वानों ने कबीर के रहस्यवाद में अभिव्यक्त प्रेम -पक्ष को सूफी प्रभाव माना है, किन्तु यह मत मान्य नहीं है। सूफी प्रेम-पद्धति में परमात्मा को स्त्री रूप में दर्शाया जाता है, जबकि कबीर ने परमात्मा को प्रियतम मानकर आत्मा की स्त्री रूप में कल्पना की है; जो कि विशुद्ध भारतीय परंपरा है तथा यह परंपरा महाराष्ट्र के संत भक्तों से प्रभावित जान पड़ती है।
             कबीर के काव्य में रहस्यवाद का साधनात्मक पक्ष भी पूर्णरूपेण दृष्टिगोचर होता है। संत सम्प्रदाय का सीधा विकास योगियों के नाथ-सम्प्रदाय से हुआ माना जाता है, अतः कबीर पर उनकी साधना(हठयोग आदि) का प्रभाव है। इनके साहित्य में इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, षटदल, ब्रह्मरंध्र(सहस्त्रार मुख), सहज साधना जैसे शब्द बहुतायत में मिलते हैं। साधनात्मक रहस्यवाद का उदाहरण देखिए-
                 गगन गरजै अमो बादल गहिर गम्भीर।
                 चहुँदिसि दमकै भीजै दास कबीर।।
                                           या
                  झीनी झीनी बीनो चदरिया।
कभी-कभी उन्होंने उलटबासियों के द्वारा भी रहस्य-भावना को प्रकट किया है, जैसे-
                   कबीरदास की उलटी बानी।
                   बरसै कम्बल भीजै पानी।।
कहीं-कहीं अद्वैतवाद को भी माध्यम बनाया है, जैसे-
        जल  में कुम्भ  कुम्भ  में  जल  है, भीतर  बाहर  पानी।
        फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तत कथौ गियानी।।
रहस्यवाद को प्रकट करने के लिए कबीर ने कभी-कभी रूपकों और अन्योक्तियों का भी कलात्मक प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ-
          हंसा प्यारे सरवर तजि कह जाय।
          जेहि सरवर बिच मोती चुनत बहुबिधि केलि कराय।
                                        या
           संतों भाई आई ग्यान की आँधी रे।
           भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी रे।।
                       ×              ×              ×
उपर्युक्त पद रूपक तथा अन्योक्तिपूर्ण उक्तियों द्वारा रहस्य को प्रकट करने के अनुपम उदाहरण हैं।
                 उपर्युक्त विवरण में कबीर की भावनात्मक व साधनात्मक दोनों ही प्रकार की अनुभूतियाँ दृष्टव्य हैं। दोनों ही दृष्टियों से कबीर एक उत्कृष्ट रहस्यवादी भक्त-कवि सिद्ध होते हैं।
                                                          - हिमांश धर द्विवेदी

टिप्पणियाँ

  1. 'कबीर का रहस्यवाद' को आपने बहुत ही सधी हुई एवं सरल भाषा मे व्यक्त किया है जिसमें रहस्यवाद की कोटि से लेकर अद्वैतवाद तक बात की है।
    धन्यवाद

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  2. Thik likha h aapne..
    Kintu Maine to aajtk this padha tha ki bhavanatmak rahasyavad Sufi ya videshi prabhav h,,
    Maharashtra Santo ki vyakhya phli bar dekh RHA hu

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    1. कबीर का भावनात्मक रहस्यवाद सूफियों से थोड़ा अलग क़िस्म का है, जिसे मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की है। 😊

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  3. सर क्या आप मुझे कबीर के साधनात्मक रहस्यवाद पर विस्तार से जानकारी दे सकते है ?

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